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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःसीधेसाधे चित्र


कल्याणी सुभद्रा कुमारी चौहान

विवाह के बाद नव-वधू को लेकर जब बैरिस्टर राधारमण घर लौट रहे थे, तब रास्ते में ही एक रेल दुर्घटना हो गई। कई बाराती घायल हो गए, दो का तो घटनास्थल पर ही अंत हो गया। मरने वाला एक 'लॉ' का विद्यार्थी था और दूसरे थे स्वयं वैरिस्टर राधारमण। मृत्यु के कुछ क्षण पहले एकाएक राधारमण ने आँखें खोलकर चारों तरफ देखा। पास ही बैठे हुए अपने मित्र जयकृष्ण से कहा, कल्याणी को तुम्हें सौंपता हूँ। यह चाहे तो इसका विवाह भी कर देना। इसे कोई कष्ट न होने पाए। अधिक वह कुछ न बोल सके और उनका प्राणांत हो गया।

घायल बारातियों के साथ नव-वधू कल्याणी को लेकर जयकृष्ण घर आए। दो दिन पहले कल्याणी के सौभाग्य पर बहुतों को ईर्ष्या हुई थी। आज घर-घर में उसके दुर्भाग्य की चर्चा थी। उसका मुँह देखता तो दूर, सौभाग्यवती स्त्रियाँ उसकी छाया से भी डरती थीं। वे सोचतीं, यह स्त्री कितनी अभागी है कि इसके परिवार में तो कोई था ही नहीं, विवाह का कंगन भी न छूट पाया था और वैधव्य मुँह बाए निगल जाने को खड़ा हो गया। वर्ना क्या उसी दिन, उसी ट्रेन में रेल दुर्घटना होनी थी? कुछ भी हो, घर-घर बड़ी-बूढ़ी स्त्रियों में यही चर्चा थी कि यह अपने सत्यानाशी पैरों से जिस घर जाएगी, उसी घर में कोई दीया जलाने वाला न रह जाएगा।

धीरे-धीरे यह बात जयकृष्ण की पत्नी मालती ने भी सुनी। पति और संतान के लिए हिंदू नारी क्या नहीं कर लेती। उसके कल्याण के लिए अपना तन-मन सभी कुछ निछावर कर सकती है-प्रसन्‍नता से। और जिस बात में उनके किंचित्‌ मात्र भी अहित की शंका होती है, वह काम हिंदू-नारी कभी कर ही नहीं सकती। मालती का जी अंदर-ही-अंदर घबरा उठा। वह क्‍या करे? उसे तो अभागिन कल्याणी पर भी दया आती थी। किंतु जिस दिन जयकृष्ण का जरा सिर दुःखता था, बच्ची उपमा जरा भी अनमनी हो जाती, उस दिन ऐसा जान पड़ता जैसे कल्याणो का दुर्भाग्य मुँह खोले उसे निगलने को दौड़ा आ रहा है।

पर उपमा को यह अपनी चाची कल्याणी बहुत अच्छी लगती थी। कल्याणी के आने के बाद उपमा सदा उसी के पास रहती-खेलती, उसी के हाथ से नहाती और दूध पीती। रात में सो जाने के वाद ही मालती उसे ले जा सकती थी। वह बालिका जागते में अपनी चाची को छोड़ना ही न चाहती थी।

मालती को यह बात पसंद नहीं थी। वह नहीं चाहती थी कि उपमा उससे इतनी हिल-मिल जाए। दबी जबान में उसने कई बार पति से कहा, कल्याणी को कहीं भेज दो; किसी की जवान विधवा आज छै-छै महीने से अपने घर में है, लोग क्या कहते होंगे? और जयकृष्ण सदा हँसी में टाल देते, तुम क्यों घबराती हो? कहने वाले मुझे ही तो कहेंगे। विधवा जवान हो या बूढ़ी? तुम्हें तो कोई कुछ भी न कहेगा । किंतु जिस बात से मालती सबसे अधिक डरती थी, वह बात जयकृष्ण से कभी न कह सकी । वह कैसे कहे कि वह भी इन बूढ़ियों की बात पर विश्वास करती है। उसे रात-दिन अपने पति और बच्ची के अमंगल की आशंका बनी रहती।

धीरे-धीरे सात महीने बीत गए और जयकृष्ण कुछ भी निश्चय न कर सके कि वे कल्याणी के लिए क्‍या करें। एक दिन नगर के किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के, मर जाने से ऑफिस बंद हो गया और वे समय से बहुत पहले घर आ गए। नीचे कोई न था। ऊपर उपमा की आवाज आ रही थी। सोचा वे लोग ऊपर होंगे। ऊपर गए। सीढ़ियों पर चढ़ते ही देखा, कल्याणी नहाकर बाल सुखा रही है। खूब लंबे, घने काले केशों के बीच गोरा-गोरा मुँह बिलकुल चाँद-सा लग रहा था। बड़ी-बड़ी आँखों में एक विशेष प्रकार का आकर्षण था। ऐसा सौंदर्य तो जयकृष्ण ने कभी देखा ही न था। अंग-प्रत्यंग से यौवन जैसे फूटा-सा पड़ता था। क्षण भर निहारने का लोभ जयकृष्ण संवरण न कर सके। और तभी कल्याणी की नजर जयकृष्ण पर पड़ी। उसने सिर ढँक लिया। लज्जा की लाली उसके चेहरे पर दौड़ गई। उसका सौंदर्य दूना हो गया।
इधर जयकृष्ण का अधीर मन बेकाबू हो चला। वे अब सीढ़ियों से ऊपर जाकर कुरसी पर बैठ गए। कल्याणी से बोले, मुझे तुमसे कुछ बात करनी है कल्याणी।

कल्याणी मरी जा रही थी। वह नहीं चाहती थी कि जयकृष्ण उससे ऐसे समय में कोई भी बात करें, जब मालती घर में नहीं है। बात चाहे कुछ भी न हो, पर मालती को संदेह जरूर होगा, यह कल्याणी जानती थी। वह इसलिए चुप थी। पर जयकृष्ण फिर बोले, उनकी आवाज भारी और स्वर कांप रहा था, कल्याणी! मृत्यु के समय राधारमण तुम्हें मेरे हाथों सौंप गए हैं। मेरा कर्तव्य तुम्हें सुखी बनाना है। किंतु सुख का मार्ग तुम्हें ही निश्चित करना होगा।

कल्याणी ने आँखें उठाकर जयकृष्ण की तरफ देखा, किंतु देख न सकी। उनकी आँखों में उसने कुछ देखा, उसे अच्छी तरह न जान सकी कि क्या था। किंतु उस दृष्टि में कुछ था, जिससे कल्याणी सिहर उठी। एक प्रकार की बिजली-सी उसके सारे शरीर में दौड़ गई। यह उसका पहला अनुभव था।
कल्याणी ने कहा, आप जो ठीक समझें, करें, मैं कुछ नहीं जानती। अच्छा होता कि आप बहन जी के आने पर मुझसे बातें करते। वे सुशीला बहिन जी के घर गई हैं।
-अच्छा, उनके आने पर ही मैं बात करूँगा कल्याणी, कहते हुए जयकृष्ण बाहर चले गए।

मालती को यह बात मालूम होगी, या स्वयं कल्याणी कह देगी। किंतु अगर आते ही उपमा ने कह दिया कि बाबू चाची के पास ऊपर बैठे थे तो तुरंत तूफान खड़ा हो जाएगा। इसलिए कल्याणी उसे कहानी कहकर बहलाने लगी। कल्याणी को लेकर कभी घर में तूफान खड़ा हो जाता, तब उसका जी चाहता था कि धरती फटे और वह समा जाए। वह नहीं चाहती थी कि वह उनके सुखमय जीवन में विषाद का कारण बने। इसलिए सबसे छिपी-छिपी रहती थी। वह यही चाहती थी कि किसी को उसके अस्तित्व का पता न लगे। अभागिन नारी! जिसे परमात्मा ने सौंदर्य देते समय इतनी उदारता दिखलाई थी, उसके भाग्य में सुख का एक क्षण भी न लिखा धा।

सुशीला के यहाँ मालती को बहुत-सी बातें सुनने को मिलीं। सुशीला की सास ने यहाँ तक कहा, दुलहिन! तुम्हें तो अभी अच्छा लगता होगा, सहेली मिल गई है, पर वह कुलच्छनी है! तुम्हारा घर भी चौपट कर देगी! उस छूत को निकाल... बाहर करो।

मालती निश्चय करके लौटी थी कि आज वह जयकृष्ण से जरूर कहेगी कि अब वह कल्याणी को अपने घर में न रख सकेगी। बहुत दिन रह चुकी । लौटते ही उसने देखा कि जयकृष्ण कमरे में लेटे अख़बार पढ़ रहे हैं। उसने अंदर आकर घंटी की बटन दबा दी। उपमा सो गई थी। कल्याणी नीचे आई। मालती ने उसे चाय तैयार करने को कहा। सोचा चाय पीने के बाद कहूँगी, किंतु रहा न गया। दफ्तर पहुँची। जयकृष्ण ने अख़वार रख दिया, पत्नी का वे बहुत आदर करते थे। मालती पास जाकर बैठ गई, बोली, “मैं अभी सुशीला के घर गई थी। सब लोग इस बात से बहुत असंतुष्ट हैं कि हम लोग कल्याणी को अपने घर में रखे हुए हैं वे लोग कहते हैं कि उसे कहीं और भेज देना चाहिए ।

जयकृष्ण की भृकूटी टेढ़ी हो गई। उन्होंने कहा, तो जाकर उसे हाथ पकड़कर निकाल दो। उनके स्वर में रूख़ापन था। उन्होंने करवट बदल ली। मालती चुपचाप चली गई। उसने सोचा, जान पड़ता है कि यह जीवन भर के लिए यहाँ आई है।

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